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मल्टीप्लेक्स में महंगे सामान पर उठे सवाल, सिनेमावाले बोले- हमारी मजबूरी है, लोगों ने थिएटर से दूरी बना ली

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पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मल्टीप्लेक्स में खाने-पीने की चीजों के महंगे दामों पर चिंता जताई। कोर्ट ने कहा कि सिनेमाघरों में खाने- पीने की चीजों के दाम उचित रूप से तय होने चाहिए, ताकि ज्यादा लोग सिनेमा में फिल्में देखने आएं। कोर्ट ने चेतावनी दी कि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो सिनेमा हॉल खाली हो जाएंगे। दरसअल, कोर्ट मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। इस दौरान कोर्ट ने चिंता जताते हुए कहा, 'आप पानी की बोतल के लिए 100 रुपये और कॉफी के लिए 700 रुपये लेते हैं। इसकी दरें तय होनी चाहिए। चूंकि सिनेमाघर कमज़ोर हो रहे हैं, इसलिए ज्यादा लोगों के लिहाज से इसे और ज़्यादा वाजिब बनाया जाना चाहिए, वरना सिनेमा हॉल खाली हो जाएंगे।'

'महंगा होने के चलते कम हो गए दर्शक'प्रोड्यूसर व फिल्म बिजनेस एनालिस्ट गिरीश जौहर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से सहमति जताते हैं। वह कहते हैं, 'अगर किसी चीज के दाम कंज्यूमर फ्रेंडली होंगे, तभी लोग उसे खरीदेंगे। उनको जहां भी सस्ता एंटरटेनमेंट मिलेगा, वे वहीं जाएंगे। सिनेमावालों को यह सोचना पड़ेगा कि उनके यहां जो पॉपकॉर्न 1000 रुपए का मिल रहा है, वह बाहर 100 रुपए का मिल रहा है। मेरा मानना है कि सिनेमा में ज्यादा दर्शकों को बुलाने की खातिर वहां पर टिकटों के दाम से लेकर खाने-पीने की चीजों के दाम लोगों की पहुंच में होने चाहिए। कम से कम बुनियादी चीजों के दाम तो एक लिमिट में होने चाहिए। सिनेमटोग्राफी एक्ट, 1952 में भी यही लिखा है कि सिनेमा पब्लिक का एक मास कमर्शियल एंटरटेनमेंट मीडियम है। अगर आप सिनेमा को पब्लिक की पहुंच से ही दूर रखेंगे, तो कैसे चलेगा। इसलिए आजकल पब्लिक थिएटरों में आ ही नहीं रही है।' बकौल गिरीश, 'सिनेमा जाना इतना ज्यादा महंगा हो जाने के चलते ही बीते कुछ सालों में दर्शकों की संख्या में भारी कमी आई है। एक तो सिनेमा पर अच्छा कॉन्टेंट बहुत कम आ रहा है, ऊपर से उसके दाम इतने ज्यादा हो गए हैं। इसके चलते दर्शकों ने सिनेमा से दूरी बना ली है। फर्ज कीजिए कि आप खुद भी अगर कोई सामान खरीदते हैं, जिसका दाम सामान्य है, तो भले ही आपको वह ठीक नहीं भी लगता है, तो भी एक बार को आप उसे ले लेते हैं। क्योंकि इससे आपकी जेब पर कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन अगर आप बहुत महंगा प्रॉडक्ट लेते हैं और उसकी क्वालिटी बहुत बकवास लगती है, तो फिर आप ज़िंदगी में उसे दोबारा नहीं लेंगे।'

'मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं सिनेमाघर'हालांकि सिनेमावालों के पास उनकी अपनी तमाम परेशानियां हैं। वेव सिनेमाज के वाइज प्रेसिडेंट योगेश रायजादा की मानें, तो इस मामले में सारा ठीकरा सिनेमावालों पर नहीं फोड़ा जाना चाहिए। वह बताते हैं, 'हमें खाने-पीने के दामों पर कैप लगाने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन इसके लिए आप हमारी बिक्री को पैमाना बनाना होगा। एक सिनेमा में 5 पर्सेंट ही दर्शक आते हैं और दूसरे में 50 पर्सेंट लोग फिल्म देखते हैं। कुछ ऐसा ही हाल फिल्मों की रिलीज का भी है। किसी फिल्म को देखने हर कोई आता है, जबकि किसी के लिए दर्शकों के लाले पड़ जाते हैं। जब एक शहर के चार अलग-अलग इलाकों में ही दर्शकों की संख्या अलग होती है, तो आप एक ही छत के नीचे कैसे सबको कंट्रोल कर सकते हैं। यह एक कड़वा सच है कि सिनेमाघरों के अपने खर्चे इतने ज्यादा होते हैं कि वे फूड बिजनेस से कमाई का जरिया ढूंढते हैं। अगर आप देखें तो एक 1000 लोगों की सिटिंग कैपेसिटी वाला सिनेमाहॉल चाहे 5 पर्सेंट ही भरा हो, लेकिन उसके अंदर AC और बाकी स्टाफ तो पूरी कैपेसिटी के हिसाब से ही होगा। उसके बाद पूरे स्टाफ की सैलरी भी देनी है। तमाम तरह के टैक्स भी आपको पूरे ही देने होते हैं। दर्शकों की संख्या अनिश्चित होने के कारण हमारे पास कमाई का दूसरा साधन क्या है? इसलिए सिनेमा वाले भी कोल्ड-ड्रिंक और पॉपकॉर्न बेचकर ही खर्चा निकाल रहे हैं। इसलिए आज सभी नैशनल सिनेमा परेशानी का सामना कर रहे हैं। हमें नो प्रॉफिट नो लॉस के लिए भी कम से कम 20 पर्सेंट दर्शक चाहिए। लेकिन पिछले फाइनैंशल ईयर में एवरेज ऑक्यूपेंसी 12-14 पर्सेंट ही थी। इसलिए हम उस स्थिति में भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। सच्चाई यह है कि आजकल सिनेमा बिजनेस सिर्फ कहने और दिखाने को ही ग्लैमरस बिजनेस है, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।'

'दर्शक कम हों या ज्यादा, लेकिन खर्चे पूरे हैं'जबकि डिलाइट सिनेप्लैक्स के सीईओ राजकुमार मेहरोत्रा ने बताया, ' देखिए हर किसी का अपनी लागत निकालने का एक तरीका होता है। कोई भी बिजनेस हो, उसे अपनी रनिंग कॉस्ट निकालने के लिए कुछ ना कुछ तो महंगा रखना पड़ेगा। जो चाय-कॉफी हम घर पर पीते हैं, वह इतनी महंगी नहीं होती। लेकिन अगर होटल या एयरपोर्ट की बात करें, तो वहां उसके दाम काफी ज्यादा होते हैं। दरअसल सिनेमाघरों में लोग अक्सर जाते हैं। जबकि होटलों या एयरपोर्ट पर वे कभी कभार जाते हैं। इसलिए सिनेमाघरों में खाने पीने की चीजों के महंगे दामों की ज्यादा चर्चा होती है। प्रैक्टिकली देखें तो यह सब बिजनेस की बढ़ती रनिंग कॉस्ट के कारण होता है।' मेहरोत्रा कहते हैं कि आप दुनियाभर में कहीं भी चले जाएं, हर जगह सिनेमा हॉल टिकट में छूट या फिर कैंटीन के दम पर ही चलते हैं। जो पिक्चरें उनमें चलाई जाती हैं, वे इतना मुनाफा नहीं दे रही हैं। साथ ही इस बिजनेस में कुछ ऐसे खर्चे हैं, जो आपको करने ही हैं। फिर चाहे दर्शक एक आए या एक हजार। आज हर चीज़ महंगी है। आप चीजों के दाम करने की बात करते हैं, तो हमारे ऊपर जो टैक्स हैं, उसे भी रिन्यू करना चाहिए। वहीं सिनेमा बिजनेस के अर्थशास्त्र के बारे में पूछने पर राजकुमार मेहरोत्रा ने बताया, 'इस बिजनेस में अगर दर्शकों की ऑक्युपेंसी 50 परर्सेंट भी है, तो बहुत बढ़िया है। लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं है। अगर किसी एक बड़ी फिल्म का शो हाउसफुल है, तो ऐसा नहीं होता कि आगे भी ऐसी ही फिल्में आएंगी। ज्यादातर सामान्य बिजनेस वाली फिल्में आती हैं, जबकि ऑक्यूपेंसी पूरे साल की देखी जाती है। इसलिए औसतन 50 पर्सेंट ऑक्यूपेंसी भी मेंटेन रखना बड़ी बात है। मुझे नहीं लगता कि कोई अच्छे से अच्छा सिनेमा हॉल भी 30-35 पर्सेंट की ऑक्यूपेंसी मेंटेन कर पाता होगा।'

सिनेमा जाना इतना ज्यादा महंगा हो जाने के चलते ही बीते कुछ सालों में दर्शकों की संख्या में भारी कमी आई है। एक तो सिनेमा पर अच्छा कॉन्टेंट बहुत कम आ रहा है, ऊपर से उसके दाम इतने ज्यादा हो गए हैं। इसके चलते दर्शकों ने सिनेमा से दूरी बना ली है। -गिरीश जौहर, प्रोड्यूसर व फिल्म बिजनेस एनालिस्ट

हमें नो प्रॉफिट नो लॉस के लिए भी 20 फीसदी दर्शक चाहिए। लेकिन पिछले साल एवरेज ऑक्यूपेंसी 12-14 पर्सेंट थी। हम उस स्थिति में भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। आजकल सिनेमा बिजनेस सिर्फ कहने और दिखाने को ही ग्लैमरस बिजनेस है, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। -योगेश रायजादा, वाइस प्रेसिडेंट, वेव सिनेमाज

आजकल आप देखेंगे तो सभी सिनेमाघरों के बाहर फूड स्टॉल्स हैं। तमाम लोग वहीं खाकर फिल्म देखने आते हैं या फिर फिल्म देखने के बाद वहां चले जाते हैं। सिनेमा के फूड स्टॉल से तो बस वे ही खाते हैं, जिन्हें फिल्म के दौरान पॉपकॉर्न खाने ही खाने हैं। -राजकुमार मेहरोत्रा, सीईओ, डिलाइट सिनेप्लैक्स
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