रांची: अटल बिहारी वाजपेयी मार्च 1998 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे। भाजपा 1988 से दक्षिण बिहार के वनक्षेत्र को मिला कर एक अगर वनांचल राज्य की मांग करती आ रही थी। शिबू सोरेन के नेतृत्व में आदिवासी नेता बहुत पहले से अलग झारखंड राज्य की मांग कर रहे थे। जून 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने बिहार विधानसभा में पारित संकल्प के आधार पर वनांचल राज्य से संबंधित बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक 1998 तैयार किया था। वाजपेयी सरकार ने इस विधेयक को राज्य की स्वीकृति के लिए तत्कालीन राबड़ी सरकार को भेजा था। इस विधेयक में वनांचल के 18 जिलों को मिला एक अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव था। इस विधेयक पर विचार करने के लिए सितम्बर 1998 में बिहार विधानसभा की विशेष बैठक बुलायी गयी थी।
मेरी लाश पर होगा बिहार का विभाजन: लालू यादवबिहार विधानसभा की इस विशेष बैठक से चार दिन पहले लालू यादव ने गरजते हुए कहा था- 'बिहार का विभाजन मेरी लाश पर होगा।' हालांकि उस समय मुख्यमंत्री राबड़ी देवी थीं, लेकिन परोक्ष रूप से सत्ता का संचालन लालू यादव ही कर रहे थे। लालू यादव ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि वे बिहार पुनर्गठन विधेयक 1998 का विरोध करेंगे। विधानसभा में यह विधेयक 107 के मुकाबले 181 मतों से नामंजूर हो गया। उस समय लालू यादव की पार्टी जनता दल से कुछ विधायक वनांचल से भी जीते थे। अकलू राम महतो बोकारो से और मझगांव से गोवर्धन नायक से जीते थे।
जब लालू ने अलग वनांचल राज्य का विरोध किया तो इन दोनों विधायकों ने इस्तीफा देने का विचार कर लिया। इस बीच भाजपा के नेताओं ने अफवाह उड़ा दी कि अलग राज्य के मुद्दे पर केन्द्र सरकार, राबड़ी सरकार को बर्खास्त कर सकती है। लालू यादव, राबड़ी सरकार को बचाने में जुट गए।
2000 के विधानसभा चुनाव के बाद स्थिति बदलीइसी बीच 17 अप्रैल 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार विश्वास मत हार जाने के बाद गिर गयी। इसकी वजह से झारखंड राज्य के गठन का मामला अधर में लटक गया। राजनीतिक घटनाक्रम और भी बदला। 1999 में लोकसभा का फिर चुनाव हुआ। अक्टूबर 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। इसके बाद फरवरी 2000 में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ। यह संयुक्त बिहार का अंतिम चुनाव साबित हुआ। 2000 के चुनाव में 324 सीटों पर चुनाव हुआ था। राजद को सिर्फ 124 सीटें मिलीं और बहुमत से दूर रह गया। 39 और विधायकों की जरूरत थी। जोड़ तोड़ से लालू यादव, कांग्रेस (29) का समर्थन हासिल करने में सफल रहे। शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा को 12 सीटें मिलीं थीं। राबड़ी देवी ने कांग्रेस, झामुमो और निर्दलीय के सहयोग से मिली जुली सरकार बना ली। कांग्रेस और झामुमो ने लालू के सामने समर्थन के एवज में अलग झारखंड राज्य की मांग रख दी।
राबड़ी सरकार बनाने के लिए पलटे लालू, झारखंड पर राजी
2000 के चुनाव के बाद लालू यादव ने अपने फायदे के लिए अचानक पलटी मार दी। जिस लालू यादव ने गर्जना के साथ कहा था कि 'झारखंड मेरी लाश पर बनेगा', वही राबड़ी सरकार बचाने के लिए झुकने को तैयार हो गये। राबड़ी देवी अल्पमत की सरकार चला रहीं थीं। अब लालू यादव चाहते थे कि अगर बिहार बंट जाएगा तो बहुमत का आंकड़ा घट जाएगा, जिसको वे कम मेहनत से हासिल लेंगे। इस दबाव में आ कर तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने अलग झारखंड राज्य के गठन के लिए बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक विधानसभा में पेश किया। विधानसभा में इस विधेयक पर 9 घंटे तक चर्चा चली। सीपीएम को छोड़ कर लगभग सभी दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया। चर्चा के बाद बिहार विधानसभा से यह विधेयक पारित हो गया।
बिहार पुनर्गठन विधेयक लोकसभा-राज्यसभा से पारित
इसके बाद केन्द्र की वाजपेयी सरकार ने जुलाई 2000 में तीन नये राज्यों (झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) के निर्माण के लिए एक विधेयक संसद में पेश किया। लोकसभा में यह विधेयक को 2 अगस्त को और राज्यसभा में 11 अगस्त को पारित हो गया। 25 अगस्त को राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी प्रदान कर दी। 15 नवम्बर बिरसा इसके आधार पर 15 नवम्बर 2000 को बिहार का विभाजन कर अलग झारखंड राज्य का निर्माण हुआ। 15 नवम्बर भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है। इस महानायक की जयंती पर झारखंड एक नया राज्य बना।
विभाजन से राबड़ी सरकार राजनीतिक रूप से मजबूत
झारखंड के अलग राज्य बनने से बिहार विधानसभा की सूरत बदल गयी। अब कुल सदस्यों की संख्या 243 हो गयी। राजद के 9 विधायक झारखंड में चले गये तो उसके विधायकों की संख्या 115 हो गयी। कांग्रेस के 12 विधायक झारखंड चले गये तो उसके पास बिहार में 11 विधायक ही बचे। अब राबड़ी देवी के बहुमत के 122 का आंकड़ा चाहिए था। कांग्रेस और राजद के कुल विधायकों की संख्या 126 पर पहुंच गयी। यानी अब राबड़ी देवी को सरकार बचाने और चलाने के लिए कांग्रेस को छोड़ कर किसी अन्य दल के समर्थन की जरूरत नहीं रही।
सरकार पहले ज्यादा स्थिर और मजबूत हो गयीराज्य के विभाजन से बिहार भले आर्थिक रूप से कमजोर हो गया, लेकिन राबड़ी देवी की सरकार राजनीतिक रूप से मजबूत हो गयी। जब झारखंड साथ था तो सदन की कुल संख्या 324 थी। उस समय राबड़ी देवी को बहुमत के लिए 163 का आंकड़ा चाहिए था। सिर्फ कांग्रेस के 23 विधायकों से सरकार नहीं बनने वाली थी। 16 और विधायकों का साथ चाहिए था। यानी विभाजन से पहले राबड़ी देवी एक मजबूर मुख्यमंत्री थीं। वे अपनी सरकार बचाने के लिए कई दलों और निर्दलीय विधायकों पर निर्भर थीं। लेकिन विभाजन के बाद उनके लिए 122 का जादुई आंकड़ा सहज और आसान हो गया।
मेरी लाश पर होगा बिहार का विभाजन: लालू यादवबिहार विधानसभा की इस विशेष बैठक से चार दिन पहले लालू यादव ने गरजते हुए कहा था- 'बिहार का विभाजन मेरी लाश पर होगा।' हालांकि उस समय मुख्यमंत्री राबड़ी देवी थीं, लेकिन परोक्ष रूप से सत्ता का संचालन लालू यादव ही कर रहे थे। लालू यादव ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि वे बिहार पुनर्गठन विधेयक 1998 का विरोध करेंगे। विधानसभा में यह विधेयक 107 के मुकाबले 181 मतों से नामंजूर हो गया। उस समय लालू यादव की पार्टी जनता दल से कुछ विधायक वनांचल से भी जीते थे। अकलू राम महतो बोकारो से और मझगांव से गोवर्धन नायक से जीते थे।
जब लालू ने अलग वनांचल राज्य का विरोध किया तो इन दोनों विधायकों ने इस्तीफा देने का विचार कर लिया। इस बीच भाजपा के नेताओं ने अफवाह उड़ा दी कि अलग राज्य के मुद्दे पर केन्द्र सरकार, राबड़ी सरकार को बर्खास्त कर सकती है। लालू यादव, राबड़ी सरकार को बचाने में जुट गए।
2000 के विधानसभा चुनाव के बाद स्थिति बदलीइसी बीच 17 अप्रैल 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार विश्वास मत हार जाने के बाद गिर गयी। इसकी वजह से झारखंड राज्य के गठन का मामला अधर में लटक गया। राजनीतिक घटनाक्रम और भी बदला। 1999 में लोकसभा का फिर चुनाव हुआ। अक्टूबर 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। इसके बाद फरवरी 2000 में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ। यह संयुक्त बिहार का अंतिम चुनाव साबित हुआ। 2000 के चुनाव में 324 सीटों पर चुनाव हुआ था। राजद को सिर्फ 124 सीटें मिलीं और बहुमत से दूर रह गया। 39 और विधायकों की जरूरत थी। जोड़ तोड़ से लालू यादव, कांग्रेस (29) का समर्थन हासिल करने में सफल रहे। शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा को 12 सीटें मिलीं थीं। राबड़ी देवी ने कांग्रेस, झामुमो और निर्दलीय के सहयोग से मिली जुली सरकार बना ली। कांग्रेस और झामुमो ने लालू के सामने समर्थन के एवज में अलग झारखंड राज्य की मांग रख दी।
राबड़ी सरकार बनाने के लिए पलटे लालू, झारखंड पर राजी
2000 के चुनाव के बाद लालू यादव ने अपने फायदे के लिए अचानक पलटी मार दी। जिस लालू यादव ने गर्जना के साथ कहा था कि 'झारखंड मेरी लाश पर बनेगा', वही राबड़ी सरकार बचाने के लिए झुकने को तैयार हो गये। राबड़ी देवी अल्पमत की सरकार चला रहीं थीं। अब लालू यादव चाहते थे कि अगर बिहार बंट जाएगा तो बहुमत का आंकड़ा घट जाएगा, जिसको वे कम मेहनत से हासिल लेंगे। इस दबाव में आ कर तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने अलग झारखंड राज्य के गठन के लिए बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक विधानसभा में पेश किया। विधानसभा में इस विधेयक पर 9 घंटे तक चर्चा चली। सीपीएम को छोड़ कर लगभग सभी दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया। चर्चा के बाद बिहार विधानसभा से यह विधेयक पारित हो गया।
बिहार पुनर्गठन विधेयक लोकसभा-राज्यसभा से पारित
इसके बाद केन्द्र की वाजपेयी सरकार ने जुलाई 2000 में तीन नये राज्यों (झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) के निर्माण के लिए एक विधेयक संसद में पेश किया। लोकसभा में यह विधेयक को 2 अगस्त को और राज्यसभा में 11 अगस्त को पारित हो गया। 25 अगस्त को राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी प्रदान कर दी। 15 नवम्बर बिरसा इसके आधार पर 15 नवम्बर 2000 को बिहार का विभाजन कर अलग झारखंड राज्य का निर्माण हुआ। 15 नवम्बर भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है। इस महानायक की जयंती पर झारखंड एक नया राज्य बना।
विभाजन से राबड़ी सरकार राजनीतिक रूप से मजबूत
झारखंड के अलग राज्य बनने से बिहार विधानसभा की सूरत बदल गयी। अब कुल सदस्यों की संख्या 243 हो गयी। राजद के 9 विधायक झारखंड में चले गये तो उसके विधायकों की संख्या 115 हो गयी। कांग्रेस के 12 विधायक झारखंड चले गये तो उसके पास बिहार में 11 विधायक ही बचे। अब राबड़ी देवी के बहुमत के 122 का आंकड़ा चाहिए था। कांग्रेस और राजद के कुल विधायकों की संख्या 126 पर पहुंच गयी। यानी अब राबड़ी देवी को सरकार बचाने और चलाने के लिए कांग्रेस को छोड़ कर किसी अन्य दल के समर्थन की जरूरत नहीं रही।
सरकार पहले ज्यादा स्थिर और मजबूत हो गयीराज्य के विभाजन से बिहार भले आर्थिक रूप से कमजोर हो गया, लेकिन राबड़ी देवी की सरकार राजनीतिक रूप से मजबूत हो गयी। जब झारखंड साथ था तो सदन की कुल संख्या 324 थी। उस समय राबड़ी देवी को बहुमत के लिए 163 का आंकड़ा चाहिए था। सिर्फ कांग्रेस के 23 विधायकों से सरकार नहीं बनने वाली थी। 16 और विधायकों का साथ चाहिए था। यानी विभाजन से पहले राबड़ी देवी एक मजबूर मुख्यमंत्री थीं। वे अपनी सरकार बचाने के लिए कई दलों और निर्दलीय विधायकों पर निर्भर थीं। लेकिन विभाजन के बाद उनके लिए 122 का जादुई आंकड़ा सहज और आसान हो गया।
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