New Delhi, 24 अगस्त . अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से रूसी तेल आयात को लेकर भारत पर लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ से दोनों देशों के दशकों पुराने संबंधों के टूटने का खतरा है. यह जानकारी एक ऑस्ट्रेलियाई इंस्टीट्यूट के लेख में दी गई.
लेख में बताया गया कि इसके साथ ही चीन के प्रभाव संतुलित करने में यूएस का प्रमुख सहयोगी (भारत) अमेरिकी नीति से भिन्न एक अलग रुख अपना सकता है.
ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स द्वारा प्रकाशित किए लेख में कहा गया है कि अमेरिका को बलपूर्वक टैरिफ लगाने के बजाय भारत के साथ जुलाई 2025 में यूनाइटेड किंगडम के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) में अपनाए गए व्यावहारिक दृष्टिकोण से प्रेरणा लेनी चाहिए, जो किसी भी देश की प्राथमिकताओं से समझौता किए बिना आपसी समृद्धि को बढ़ावा देता है.
लेख में चेतावनी गई कि टैरिफ भारत को चीन के और करीब ला सकती है, जो एक अनजाने में हुई भू-राजनीतिक भूल है जो अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाएगी.
क्वाड में भारत की भूमिका और आतंकवाद के खिलाफ योगदान इसे अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति का एक महत्वपूर्ण आधार बनाता है. 27 अगस्त से लागू होने वाले ट्रंप के टैरिफ इस साझेदारी को खतरे में डालते हैं.
लेख में कहा गया है कि अमेरिका, भारत की ओर से आयात पर लगाए जाने वाले उच्च शुल्कों और रूसी कच्चे तेल आयात के कारण टैरिफ को उचित ठहरा रहा है, लेकिन इसमें वास्तविकताओं की अनदेखी की गई है. पारंपरिक तेल आपूर्तिकर्ताओं के यूरोप की ओर रुख करने के साथ, भारत ने अपने 1.4 अरब नागरिकों की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए रियायती रूसी तेल की ओर रुख किया. जैसा कि भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि ये आयात “पूर्वानुमानित और किफायती ऊर्जा लागत” बनाए रखने के लिए “बाजार कारकों” से प्रेरित हैं. आर्थिक स्थिरता को प्राथमिकता देने के लिए भारत को दंडित करना अनुचित माना जाता है, खासकर जब पश्चिमी देश रूसी यूरेनियम, पैलेडियम और उर्वरकों का आयात जारी रखते हैं.
यूनाइटेड किंगडम, अमेरिकी दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत एक आकर्षक स्थिति प्रस्तुत करता है. 24 जुलाई को भारत और यूके ने एक ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर हस्ताक्षर किए, जो तीन वर्षों की वार्ता का परिणाम है जिसमें दोनों देशों की प्राथमिकताओं का सम्मान किया गया. यह समझौता यूके को भारत द्वारा किए जाने वाले 99 प्रतिशत निर्यात पर शुल्क समाप्त करता है, व्हिस्की और ऑटोमोबाइल जैसी ब्रिटिश वस्तुओं पर शुल्क कम करता है, और दोहरे योगदान समझौते (डीसीसी) के माध्यम से व्यावसायिक गतिशीलता को सुगम बनाता है. इस समझौते का उद्देश्य 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को दोगुना करके 120 अरब डॉलर तक पहुंचाना है, जिससे भारतीय वस्त्र और ब्रिटिश उन्नत विनिर्माण जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा मिलेगा और साथ ही भारत के डेयरी क्षेत्र जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी.
लेख में आगे कहा गया कि इसके विपरीत, अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए एक चिंताजनक संकेत हैं, एक ऐसा देश जो आतंकवाद से लड़ने और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने में अमेरिका के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहा है. भारत द्वारा रूसी तेल की खरीद कोई भूराजनीतिक अपमान नहीं है, बल्कि ऊर्जा लागत को स्थिर करने की एक आवश्यकता है. 2024 में भारत की रक्षा खरीद अमेरिकी और पश्चिमी आपूर्तिकर्ताओं की ओर स्थानांतरित हो गई है. हालांकि अभी भी 36 प्रतिशत रूस से है लेकिन एक दशक पहले के आंकड़े 72 प्रतिशत से काफी है. भारत को दंडित करने से विश्वास कम होने और उसे चीन के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने का जोखिम है, खासकर जब बीजिंग शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे मंचों के माध्यम से गहरे संबंधों के लिए खुलेपन का संकेत दे रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 31 अगस्त को शंघाई सहयोग संगठन (एसीओ) शिखर सम्मेलन के लिए चीन की आगामी यात्रा, जो सात वर्षों में उनकी पहली यात्रा है, इस जोखिम को रेखांकित करती है. भारत स्थित चीनी दूतावास द्वारा साझा किए गए चाइना डेली के एक लेख में भारत-चीन संबंधों में आई “गर्मी” पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें यह संकेत दिया गया है कि अमेरिकी दबाव अनजाने में दोनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच संबंधों को और मजबूत कर सकता है. जैसा कि मोदी ने एम.एस. स्वामीनाथन शताब्दी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में घोषणा की थी, भारत अपने किसानों, मछुआरों और डेयरी श्रमिकों के साथ “कभी समझौता नहीं” करेगा, जो बाहरी दबाव के सामने दृढ़ संकल्प का संकेत देता है.
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एबीएस/
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