New Delhi, 31 अक्टूबर . औरतों के लिए दुनिया अजीबो-गरीब रही है. इसको करीब से जीने वालीं महिलाओं में भारतीय-साहित्य की विलक्षण बुद्धिजीवी प्रभा खेतान भी थीं. अपने जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करने वाली आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ लिखकर सौम्य और शालीन प्रभा खेतान ने साहित्य जगत को चौंकाया था.
आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ प्रभा खेतान की भोगी हुई जिंदगी की कहानी है. यह आत्मकथा एक महिला के आत्मबोध को देह विमर्श और नारीवाद की सीमा-रेखाओं को तोड़कर संस्कृति, Political हलचलों और आर्थिक आत्मनिर्भरता के एक बड़े बौद्धिक परिसर में ले आती है. इसमें अपमानों और उपेक्षाओं से मिली पीड़ा के जरिए पितृसत्तात्मक वर्चस्व को इस तरह उजागर किया गया कि आत्मकथा व्यक्तिगत नहीं रह जाती.
एक नवंबर 1942 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में जन्मी प्रभा खेतान दर्शन, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विश्व-बाजार और उद्योग-जगत की गहरी जानकार थीं और सबसे बढ़कर सक्रिय नारीवादी लेखिका थीं. उन्होंने समाज में स्त्री के शोषण, मनोविज्ञान और मुक्ति के संघर्ष पर लेखन किया. महिलाओं के लिए उनकी लेखनी किसी क्रांति से कम नहीं थी.
पहले हिंदी के परिदृश्य में सिमोन द बोउवार की ‘द सेकंड सेक्स’ के हिंदी अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ ने भारतीय नारीवादी विमर्श में उनको सुर्खियों में ला दिया था. हालांकि, वह 12 साल की उम्र से ही साहित्य साधना में जुट चुकी थीं.
उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा के अंतर्गत कोलकाता विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र में एमए की डिग्री हासिल की. इसके बाद ‘ज्यां पॉल सार्त्र के अस्तित्ववाद’ पर अपनी पीएचडी पूरी की.
इस बीच, लेखन का सिलसिला रुका नहीं था. बंगाली स्त्रियों के बहाने उन्होंने स्त्री जीवन में काफी बारीकी से झांकने का बखूबी प्रयास किया और कई निबंध लिखे. उनकी पहली कविता ‘सुप्रभात’ में छपी थी. प्रभा खेतान को जहां नारीवादी चिंतक होने का गौरव मिलता गया, वहीं वे स्त्री चेतना के कामों में सक्रियता से हिस्सा लेती रहीं और उसी क्रम में उन्होंने आत्मकथा ‘अन्या से अन्यया’ लिखी.
‘अन्या से अनन्या’ स्त्री के हाशिए से केंद्र में आने की कथा है, जिसमें वह बबूल के कांटे चबाकर अपने ‘होने’ को ‘अर्थपूर्ण होने’ में रूपांतरित करती दिखती हैं. यह पहला स्वरूप साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में धारावाहिक रूप में देखने को मिला था.
पहले साप्ताहिक पत्रिका ‘हंस’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित इस आत्मकथा को जहां एक बोल्ड और निर्भीक आत्मस्वीकृति की साहसिक गाथा के रूप में प्रशंसाएं मिलीं, वहीं बेशर्म और निर्लज्ज स्त्री के खुद को चौराहे पर नग्न करने की कुत्सित बेशर्मी का नाम भी दिया गया. इसे बाद में किताब के रूप में 2007 में राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया था.
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डीसीएच/एबीएम
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