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दिल्ली दंगों की साजिश में गुलफिशा फातिमा : आंदोलन की आड़ में हिंसा

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– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों की आग में झुलसा। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर(एनआरसी)विरोध की आड़ में भड़की इस हिंसा ने 54 लोगों की जान ले ली, सैकड़ों घायल हुए और करोड़ों की संपत्ति राख हो गई। शुरुआती तौर पर इसे अचानक भड़की नाराजगी बताया गया, लेकिन अदालत और जांच एजेंसियों ने धीरे-धीरे यह साफ कर दिया कि यह सब योजनाबद्ध था। इस षड्यंत्र में जिस नाम ने सबसे अधिक ध्यान खींचा, वह है, गुलफिशा फातिमा उपनाम गुल, जिसने महिलाओं की अगुवाई करते हुए हिंसा का स्थानीय चेहरा बनकर भूमिका निभाई।

दरअसल, ये गुलफिशा फातिमा सीलमपुर की 26 वर्षीय वह युवती है, जो बाहर से एक साधारण छात्रा और महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता दिखती रही। पिंजरा तोड़ जैसे संगठनों से जुड़ाव और नताशा नरवाल व देवांगना कलिता जैसी एक्टिविस्टों से करीबी रहते वह औरतों के आंदोलन का चेहरा बन बैठी। दिसंबर 2019 से उसने वारियर्स और औरतों का इंकलाब जैसे व्हाट्सऐप ग्रुप बनाए और मदीना मस्जिद के पास सातों दिन और 24 घण्‍टे का धरना शुरू कराया। यही से उन्हें लोकल आयोजक के तौर पर पहचान मिली। लेकिन इस सबके पीछे उसका जो छिपा हुआ मकसद था, वह बहुत ही खतरनाम निकला।

आज अदालत में पेश गवाहों और सबूतों ने दिखाया कि उनका काम सिर्फ शांतिपूर्ण प्रदर्शन तक सीमित नहीं था। पुलिस की चार्जशीट और उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार महिलाओं को संगठित करने, फंड जुटाने और हिंसा की जमीन तैयार करने में निर्णायक भूमिका निभाने में यह नाम प्रमुख है, जो अब सुर्खियों में है।

गुप्त मीटिंग्स और हिंसा की तैयारी

23 जनवरी 2020 को पिंजरा तोड़ दफ्तर में हुई बैठक में गुलफिशा के साथ उमर खालिद, ताहिर हुसैन और अन्य आरोपित शामिल थे। यहां केवल चक्का जाम की योजना नहीं बनी बल्कि लाल मिर्च पाउडर, एसिड, बोतलें और डंडे जैसी सामग्रियाँ जुटाने के निर्देश दिए गए। अदालत के गुप्त गवाहों ने कहा कि गुलफिशा ने इन वस्तुओं की व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाई। गवाहों ने यह भी बताया कि हिंसा को अंजाम देने के लिए कोड वर्ड्स का इस्तेमाल होता था। कल ईद है का मतलब होता था कि सड़क जाम करो और आज चाँद रात है का अर्थ ब्लॉकेज का दिन होता था। अदालत ने इस प्राइमा फेसी को सही मानते हुए कहा कि यह आंदोलन अचानक नहीं बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा था।

जाफराबाद से भड़की आग

22 फरवरी 2020 को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे हुए धरने की अगुवाई गुलफिशा ने ही की। उन्होंने सैकड़ों महिलाओं को इकट्ठा किया, सड़कें जाम कराईं और पुलिस से भिड़ंत करवाई। एफआईआर 48/2020 में दर्ज है कि महिलाओं को लाल मिर्च पाउडर, पत्थर और डंडों से लैस किया गया था। अगले ही दिन हिंसा अपने चरम पर पहुँची। अदालत में गवाह सैटर्न ने कहा कि उसने ताहिर हुसैन को गुलफिशा को पैसों का बंडल देते देखा। यह पैसा दंगों में खर्च हुआ। उच्च न्यायलय ने इस गवाही को भी विश्वसनीय माना।

महिलाओं को बनाया हथियार

दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश में यह भी दर्ज हुआ है कि महिलाओं को इस षड्यंत्र में ढाल की तरह इस्तेमाल किया गया। सामान्यत: पुलिस पुरुष दंगाइयों पर तुरंत बल प्रयोग करती है, लेकिन जब सामने महिलाएँ होतीं तो प्रशासन के लिए कार्रवाई कठिन हो जाती। गुलफिशा ने इस रणनीति को अमल में लाने के लिए महिलाओं को संगठित किया और सड़कें ब्लॉक कराईं।

अदालत की सख्त टिप्पणी और चिंता

दिल्ली उच्च न्यायालय की बेंच (जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शालिंदर कौर) ने गुलफिशा की जमानत याचिका दो सितंबर 2025 को खारिज करते हुए कहा कि वह केवल फुट सोल्जर नहीं बल्कि लोकल लेवल पर हिंसा की मैनेजर थीं। उनकी भूमिका नताशा और देवांगना जैसे अन्य आरोपितों से भिन्न थी, क्योंकि उन्होंने भीड़ जुटाने, हिंसा की तैयारी और फंडिंग में केंद्रीय भूमिका निभाई। अदालत ने यूएपीए की धारा 43D(5) का हवाला देते हुए कहा कि इतने गंभीर आरोपों के बीच जमानत संभव नहीं है।

खुल रही हैं इस्‍लामिक और राजनीतिक षड्यंत्र की परतें

दिल्ली दंगे केवल सीएए विरोध की प्रतिक्रिया नहीं थे। जांच और अदालत के निष्कर्ष बताते हैं कि यह सरकार को अस्थिर करने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि खराब करने का संगठित प्रयास था। इस दृष्टि से गुलफिशा जैसी कार्यकर्ताओं की भूमिका केवल स्थानीय नहीं बल्कि बड़े राजनीतिक एजेंडे से जुड़ी थीं। आज गिरफ्तारी के पाँच साल बाद भी गुलफिशा जेल में हैं और अदालत ने उनकी जमानत अस्वीकार कर दी है। यह निर्णय स्पष्ट संदेश देता है कि लोकतंत्र में असहमति और विरोध की पूरी गुंजाइश है, लेकिन हिंसा और षड्यंत्र के जरिए राज्य को चुनौती देना स्वीकार्य नहीं होगा।

यहां तथ्‍य यह सामने आया है कि गुलफिशा फातिमा, सीलमपुर की रहने वाली एक साधारण लड़की, जिसने महिला अधिकारों की आवाज बनकर पहचान बनाई। परंतु अदालत में पेश सबूतों से साबित हुआ है कि वह सीएए विरोध की आड़ में हिंसा भड़काने और दंगों की साजिश की लोकल मैनेजर थी। उसने न केवल महिलाओं को भीड़ का हिस्सा बनाया बल्कि उन्हें पुलिस पर हमले के लिए प्रशिक्षित किया।

न्‍यायालय ने माना है कि वह उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे बड़े चेहरों की तरह ही षड्यंत्र में सक्रिय थी। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि महिलाओं को साजिश में शामिल करने का यह पैटर्न आज सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं, बल्कि कश्मीर से लेकर केरल तक देखने को मिल रहा है, जिसमें कि एक खास विशेष वर्ग इस्‍लाम को माननेवालों की सहभागिता ही हर बार सबसे अधिक नजर आती है। उस पर भी हिन्‍दू विरोध और सरकारी सिस्‍टम ही इनके निशाने पर रहता है!

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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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