बॉलीवुड की बड़ी-बड़ी ब्लॉकबस्टर्स जहां वक़्त के साथ धुंधली पड़ गईं, वहीं शोले मानो एक बढ़ती हुई विरासत बन गई है.
50 साल पहले भारत के स्वतंत्रता दिवस पर रिलीज़ हुई यह फिल्म अब सिर्फ़ फिल्म नहीं, बल्कि एक मुकम्मल अनुभव बन चुकी है.
एक एहसास, जो हर बार देखने पर नया रंग ले लेता है. बूमर हों या जेन एक्स, मिलेनियल्स हों या जेन ज़ी, हर पीढ़ी इसे अपनी नजर से देखती है और उसमें अपना कोई अक्स देख लेती है.
ये फिल्म हर दौर से दोस्ती करना जानती है और सबसे वैसे ही घुल-मिल जाती है जैसे जय-वीरू की दोस्ती.
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70 के दशक की मसाला फिल्म 'शोले' के डायलॉग, निर्देशन और तकनीकी पहलुओं पर दशकों से चर्चा होती रही है.
लेकिन ख़ास बात यह है कि इस फिल्म ने मनोरंजन की राह पकड़कर ही समाज और हिंदी सिनेमा के पुराने जमाने के ढर्रों को चुनौती दी.
आज़ादी के बाद की भारतीय फिल्मों में कहानियां अक्सर तयशुदा ढर्रे पर चलती थीं, लेकिन शोले की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि उसने बॉलीवुड की उन पुरानी रूढ़ियों, खांचों और स्टीरियोटाइप्स को तोड़ दिया, जो वर्षों से फिल्मी कहानियों का हिस्सा थे.
शायद इसी वजह से, पचास साल बाद भी शोले हमें पुरानी या समय के पीछे की फिल्म नहीं लगती.
इसकी सोच और संवेदनाएं आज के ज़माने की लगती हैं, जैसे वक़्त की परवाह किए बिना, अपनी अलग ही धुन में चल रही हों.
शोले की कई ऐसी बातें हैं जो साफ़ इशारा करती हैं कि ये फ़िल्म अपने वक़्त से कई कदम आगे थी.
जय-वीरू: जब चोर बने चौकीदार
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो शोले से पहले के बॉलीवुड हीरो अक्सर बिना दाग-धब्बे के, नैतिकता की मूर्ति और आदर्शवादी सांचे में ढले नायक हुआ करते थे.
शोले ने इस परंपरागत आदर्श सांचे को ताक़ पर रख दिया. यहाँ जय और वीरू थे. जेल से छूटे, चोर-उचक्के बदमाश. जिनका अतीत कहीं साफ़ नहीं था. वो शराब पीते थे, झूठ बोलते थे और ठग भी थे.
लेकिन जब ठाकुर बलदेव और रामगढ़ की उम्मीदें इन दोनों पर टिकीं, तो ये नायक ना सिर्फ़ बदले, बल्कि ख़तरनाक गब्बर सिंह के सामने डटकर खड़े हो गए.
नायक वो नहीं जो बिना दाग़ के हो, बल्कि वो है जो अपने अतीत को पीछे छोड़कर, अपने अंदर के उजाले को जगाए.
बदमाश होकर भी गांव की रक्षा की, दोस्ती निभाई, और इंसानियत दिखाई.
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ख़ुद लेखक जावेद अख़्तर का मानना है कि शोले से पहले बॉलीवुड फिल्मों में पुरुषों की दोस्ती काफी हद तक आशिक-माशूक वाली होती थी.
उनका कहना है, "वो गले लगकर कहते थे, 'मेरी जान, मेरे दोस्त, तूने जान भी मांगी तो क्या मांगी' जैसे डायलॉग होते थे. असल दोस्त एक-दूसरे से ऐसा कभी नहीं बोलते."
वे कहते हैं- लेकिन 'शोले' में जय-वीरू एक-दूसरे की खिंचाई करते, मज़ाक उड़ाते, झगड़ते, फिर भी मुश्किल में साथ निभाते थे.
याद है ना वो सीन जब जय, वीरू का रिश्ता लेकर बसंती की मौसी के पास जाता है, लेकिन फिर गंभीर होकर बेझिझक एक-दूसरे से अपनी आने वाली जिंदगी के बारे में भावनाएं साझा करते हैं.
जब वक्त आता है, तो जय जान दे देता है लेकिन बिना किसी डायलॉगबाज़ी के.
इस तरह की दोस्ती और केमिस्ट्री पहली बार शोले में ही दिखी और उसके बाद आने वाली हिंदी फ़िल्मों की दोस्ती पर इसका गहरा असर रहा.
बसंती: गांव की 'वर्किंग वुमन'हिंदी कमर्शियल फ़िल्मों में आमतौर पर शहरी या गांव की हीरोइन सिर्फ 'प्रेमिका' ही होती थी, 'वर्किंग वुमन' नहीं.
लेकिन रामगढ़ की बसंती (हेमा मालिनी) ने बताया कि औरत भी ड्राइविंग सीट पर हो सकती है.
तांगेवाली बसंती 'वर्किंग वुमन' थी तो चारदीवारी से बाहर निकलकर अपना घर चलाती है.
वह गांव में इज्ज़त से कमाती है और शर्मीली नायिकाओं से अलग किसी से भी डरे बिना अपनी बात कहती है.
अपने पहले ही सीन में बसंती बता देती है, "लोग हमसे ये भी कहते हैं कि बसंती लड़की होकर तांगा चलाती हो तो हम उसका जवाब ये देते हैं कि धन्नो घोड़ी होकर तांगा खींच सकती है तो बसंती लड़की होकर तांगा क्यों नहीं चला सकती."
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शोले से पहले रमेश सिप्पी ने अपने निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'अंदाज़' में भी एक ऐसी महिला के जीवन में प्रेम की संभावना की बात की थी, जिसका पति अब इस दुनिया में नहीं है.
उस दौर के समाज में आमतौर पर ऐसी महिलाओं के लिए प्यार, श्रंगार या जीवन की नई शुरुआत की कहानियां कम ही होती थीं.
अंदाज़ की कहानी का विषय ही यही था लेकिन शोले जैसी एक्शन, बदले और रोमांच से भरी फिल्म में भी रमेश सिप्पी ने एक गहरी और साहसिक बात राधा (जया बच्चन) के किरदार के ज़रिए कही कि प्यार उम्र, हालात या समाज की मुहर का मोहताज नहीं होता.
इस बात को न तो भाषण में कहा गया न किसी संवाद में ज़ोर-ज़बरदस्ती थी.
बस एक सीन था जब ठाकुर (संजीव कुमार), अपनी विधवा बहू राधा की दोबारा शादी के लिए उसके पिता (इफ्तिख़ार) से इजाज़त मांगने जाते हैं.
पिता हैरान होकर कहते हैं, "ये कैसे हो सकता है ठाकुर साहब? समाज औऱ बिरादरी वाले क्या कहेंगे?"
ठाकुर जवाब देते हैं, "समाज और बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए बने हैं नर्मदा जी, किसी को अकेला रखने के लिए नहीं और फिर क्या दूसरों के डर से हम अपनी राधा को जीते जी मार डालें?"
एक मेनस्ट्रीम मसाला फिल्म होने के बावजूद शोले की कई बातों में प्रगतिशील सोच झलकती है और कुछ तो उस दौर के लिहाज़ से बगावती भी लगती हैं.
एक ससुर अपनी विधवा बहू की फिर से शादी करवाने की कोशिश करता है, वो भी एक ऐसे शख्स के साथ जो अपराधी रहा है क्योंकि वो जानता है कि उसकी बहू की खुशी इसी में है.
यही तो थी किरदारों में एक नई सोच की दस्तक, वक़्त के साथ चलने वाली बात जो शोले को यादगार बनाती है.
स्क्रीन राइटर सलीम ख़ान ने एक बार शोले के डायलॉग पर बात करते हुए मुझसे कहा था, "लोग आज भी हमसे कहते हैं कि आपने क्या कमाल का डायलॉग लिखा है- 'होली कब है?' या फिर- 'कितने आदमी थे?'
अब ये लाइनें ज्यादा मशहूर हो गईं लेकिन और डायलॉ़ग जैसे- 'समाज और बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए बने हैं' या फिर- 'जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा बोझ क्या होता है? बूढ़े बाप के कंधे पर जवान बेटे का जनाज़ा.'
लेकिन, लोगों को याद रहता है- 'कितने आदमी थे?'
डाकू गब्बर सिंह- लार्जर दैन लाइफ़ विलेनयूं तो 'शोले' से पहले भी हिंदी सिनेमा में कई यादगार विलेन हुए लेकिन गब्बर सिंह की खलनायकी का अंदाज़ उस दौर के लिए बिल्कुल नया और क्रांतिकारी था.
प्राण, के एन सिंह और अजीत जैसे आमतौर पर सूट-बूट में नज़र आने वाले शहरी अंदाज़ के विलेन्स से गब्बर सिंह पूरी तरह उलट था.
वह जंगलों में रहने वाला, धूल से सना, बेरहम डाकू था जो ठाकुर के पोते को ही नहीं बल्कि अपनी ही गैंग के साथियों को भी बिना पलक झपकाए मार देता है.
गब्बर खुद ही फिल्म में कहता है, "पचास-पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है तो माँ कहती है सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा."
हैरत की बात है कि इसके बावजूद 'शोले' कोई खून से लथपथ हिंसक फिल्म नहीं थी. इसमें हिंसा को बहुत हद तक सशक्त मगर सांकेतिक सीन्स के ज़रिए दिखाया गया था.
याद कीजिए गब्बर ठाकुर के पूरे परिवार की हत्या कर देता है. पूरी फिल्म इसी सीन पर टिकी है जिसका बदला ठाकुर लेता है, लेकिन इस सीन में खून की एक बूंद तक नज़र नहीं आती.
इमाम (ए के हंगल) के बेटे की हत्या भी दिखायी नहीं जाती. बस गब्बर का एक कीड़े को मसल देना ही काफी था.
लेकिन बिना खून-खराबे के भी गब्बर की छवि इतनी खौफ़नाक और गहरी है कि उसे पचास साल बीतने के बाद भी भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा खलनायक माना जाता है.
'शोले' को अमर बनाने में जय-वीरू की दोस्ती, बसंती की शोखी, राधा की खामोशी या ठाकुर का दर्द जितने जरूरी थे, उतना ही जरूरी था गब्बर का खौफ़.
सलीम-जावेद ने गब्बर के रूप में सिर्फ एक खलनायक ही नहीं गढ़ा, बल्कि हिंदी सिनेमा का सबसे डरावना और यादगार चेहरा पेश किया जिसकी गूंज पचास साल बाद भी थमती नहीं.
हॉलीवुड या यूरोपियन फिल्मों से अलग, हिंदी फिल्में शुरुआत से ही कई जॉनर एक ही फ़िल्म में परोसती रही हैं.
शोले में भी एक्शन, रोमांस, कॉमेडी, इमोशन, थ्रिल सबकुछ है लेकिन शोले ने इन सब जज़्बात को बेमिसाल संतुलन में पिरोया.
इसकी सिनेमैटोग्राफी, बैकग्राउंड स्कोर, एडिटिंग और कहानी का तालमेल इतना मजबूत था कि हर सीन दिलो-दिमाग़ में बस गया.
ना सिर्फ़ कहानी के मुख्य किरदार बल्कि सांभा, कालिया, जेलर, हरिराम नाई और सूरमा भोपाली जैसे छोटे-छोटे किरदार तक लोगों को आज तक याद हैं और 50 साल बीतने के बावजूद बाकायदा पॉप-कल्चर का हिस्सा हैं.
हिंदी सिनेमा के कई स्टीरियोटाइप को ध्वस्त करती हुई 'शोले' एक लोककथा जैसी बन गई है जो पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाती है, दोहराई जाती है लेकिन कभी भी अपनी चमक नहीं खोती.
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