अप्रैल 2025 में एक निजी अमेरिकी कंपनी कोलोसल बायोसाइंसेज़ ने 17 सेकेंड का एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें भेड़िये के दो नन्हे पिल्ले दिखाई दे रहे थे.
इन भेड़िये के पिल्लों को कोलोसल बायोसाइंसेज़ कंपनी ने बनाया है और उन्हें रोमियोलस और रीमस नाम दिया गया है.
यह नाम रोम की स्थापना करने वाले जुड़वा मिथकीय किरदारों के नाम पर रखा गया है. कुछ किस्सों के अनुसार उन्हें एक मादा भेड़िये ने बचाया था.
जेनेटिक इंजीनियरिंग करने वाली कंपनी कोलोसल बायोसाइंसेज़ ने हज़ारों साल पहले विलुप्त हो चुकी भेड़िये की डायर वुल्फ़ प्रजाति के डीएनए की मदद से भेड़िये के इन पिल्लों को बनाया है.
इसके बाद इस घटना पर बहस शुरू हो गई है और यह सवाल भी उठाए जा रहे हैं कि क्या ऐसा होना चाहिए?
इस हफ़्ते हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या अब जानवरों का विलुप्त होना अतीत की बात हो जाएगी?
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अतीत को ज़िंदा करने के प्रयासकोलोसल बायोसाइंसेज़ की प्रमुख साईंस ऑफ़िसर डॉक्टर बेथ शेपिरो बताती हैं कि उन्होंने 2015 में लिखी गयी अपनी एक किताब में क्लोनिंग की चर्चा की थी. यह भी कहा था कि विलुप्त हो चुकी किसी प्रजाति की क्लोनिंग नहीं हो सकती लेकिन इस नई उपलब्धि ने उनकी राय बदल दी है.
अगर आपने टीवी धारावाहिक 'गेम ऑफ़ थ्रोन्स' देखा है तो उसमें डायर वुल्फ़ का चित्रण है. डॉक्टर बेथ शेपिरो का कहना है कि डायर वुल्फ़, सियार और कुत्तों से जुड़ी एक प्रजाति है.
पुरातत्व विज्ञानियों के अनुसार, डायर वुल्फ़ का सबसे पहला जीवाश्म लगभग ढाई लाख साल पुराना है. यह जानवर उत्तरी अमेरिका में पाए जाते थे और आख़िरी हिमयुग के समय यानी लगभग बारह हज़ार साल पहले डायर वुल्फ़ विलुप्त हो गए थे.
डॉक्टर बेथ शेपिरो ने बताया कि दो साल पहले उनकी कंपनी की एक बैठक में इस बात पर चर्चा हो रही थी कि किस प्रजाति को दोबारा पैदा किया जा सकता है?
इस विषय में तकनीकी, पारिस्थितिकी और नैतिकता से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा हुई. डायर वुल्फ़ का जीनोम हासिल करने के 18 महीने के भीतर रोमियोलस और रीमस का जन्म हुआ. जीनोम किसी प्राणी के सभी डीएनए का पूरा सेट होता है. इसके लिए कोलोसस बायोसाइंसेज़ को सबसे पहले डायर वुल्फ़ के डीएनए की ज़रूरत थी.
डॉक्टर बेथ शेपिरो ने कहा, "हमें डायर वुल्फ़ की 72 हज़ार साल पुरानी एक खोपड़ी और 13 हज़ार साल पुराना एक दांत मिला जिससे हमने प्राचीन डीएनए हासिल किए और उसके इस्तेमाल से हमने इन दोनो डायर वुल्फ़ का पूरा जीनोम सीक्वेंस तैयार किया."
इस जीनोम सीक्वेंस को डायर वुल्फ़ की नज़दीकी प्रजाति ग्रेवुल्फ़ से मिला कर देखा गया. डॉक्टर बेथ शेपिरो ने कहा कि उन्होंने इस जीनोम में कुछ बदलाव किए ताकि प्राचीन डायर वुल्फ़ से सबसे अधिक मिलती जुलती प्रजाति पैदा हो सके.
इस प्रयोग के अंतिम चरण में ग्रेवुल्फ़ की सेल या कोशिकाओं में डायर वुल्फ़ के डीएनए डाले गए और भ्रूण तैयार किया गया.
जिन्हें विकसित करने के लिए पालतू कुत्तों को सेरोगेट की तरह इस्तेमाल किया गया यानी भ्रूण कों कुत्तों के गर्भाशय में डाल कर विकसित किया गया.
बाद में पिल्लों को सी-सैक्शन सर्जरी के ज़रिए जन्म दिया गया. मगर इसके लिए ग्रेवुल्फ़ को सरोगेट क्यों नहीं बनाया गया?
इस पर डॉक्टर बेथ शेपिरो ने कहा कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि हमारे पास कुत्तों को सेरोगेट के तौर पर इस्तेमाल करने का अधिक अनुभव और जानकारी है. वो कहती हैं कि कुत्ते दरअसल ग्रेवुल्फ़ का ही पालतू रूप हैं.
अब इस बात पर कई सवाल भी उठ रहे हैं कि यह 'डायरवुल्फ़ के पिल्ले' दरअसल क्या हैं और क्या नहीं हैं?
डॉक्टर बेथ शेपिरो ने जवाब दिया, "यह सच है कि वो हूबहू डायर वुल्फ़ नहीं हैं. हम उन्हें डायर वुल्फ़ कह रहे हैं लेकिन आप उन्हें प्रॉक्सी डायरवुल्फ़ या कोलोसल डायरवुल्फ़ भी कह सकते हैं. हमने इनमें ग्रेवुल्फ़ के गुण भी मिलाए हैं."
भेड़िये के दो पिल्ले अक्तूबर 2024 में पैदा हुए थे और तीसरा इस साल जनवरी में पैदा हुआ. डॉक्टर बेथ शेपिरो ने बताया कि इन पिल्लों को संरक्षित जगह पर रखा जाएगा. उन्हें जंगल मे छोड़ने का कंपनी का इरादा नहीं है.
वो कहती हैं कि कंपनी इन पिल्लों को दूसरे पिल्लों के प्रजनन के लिए भी इस्तेमाल नहीं करना चाहती. कंपनी का उद्देश्य यह समझना है कि यह प्राणी अपने वातावरण में कैसे बड़े होते हैं और उन्हें स्वस्थ रखना है.
कंपनी संरक्षण के लिए इस प्रक्रिया का इस्तेमाल करना चाहती है. आशा है कि इस तकनीक का इस्तेमाल कई लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के लिए भी किया जा सकता है.
डॉक्टर बेथ शेपिरो का कहना है कि लुप्तप्राय प्रजातियों का संरक्षण बेहद ज़रूरी है, मगर संरक्षण के साथ साथ इस विज्ञान के इस्तेमाल से विश्व में जैवविविधता बरकरार रखने में मदद मिलेगी.
चेन रिएक्शन
अब सवाल है कि प्रजातियां विलुप्त कैसे होती हैं?
यूके की बेलफ़ास्ट स्थित क्वीन्स यूनिवर्सिटी में इवोल्यूशनरी बायोलॉजी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर डेनियल पिंचेरा डोनोसो कहते हैं कि जीवन के इतिहास में झांके तो पृथ्वी पर 3.7 अरब सालों के दौरान जितनी भी प्रजातियां रही हैं, उनमें से 99 प्रतिशत से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं.
"सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि फ़िलहाल पृथ्वी पर मौजूद प्राणियों की 48 प्रतिशत प्रजातियों की आबादी घटती जा रही है. यानी जो प्रजातियां सुरक्षित लग रही हैं उनकी संख्या भी इसी प्रकार घटती रही तो अगले कुछ दशकों में वो विलुप्त हो जाएंगी."
विलुप्ति आंशिक भी हो सकती है यानि कोई प्रजाति विश्व के किसी हिस्से मे ख़त्म हो जाती है मगर दूसरी जगह बची रहती है. लेकिन जब वो प्रजाति हर जगह ख़त्म हो जाती है तो वो प्रजाति विलुप्त हो जाती है.
डॉक्टर डेनियल पिंचेरा डोनोसो का मानना है कि प्रजातियों की विलुप्ति (एक्सटिंक्शन) के कई कारण हो सकते हैं. मिसाल के तौर पर उनका अत्यधिक शिकार, या उनके इलाके में ऐसे प्राणियों को बसाना जो उन्हें ख़त्म कर देते हैं. एक वजह उन प्रजातियों की धीमी प्रजनन दर भी हो सकती है.
वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर ऐसी पांच घटनाओं की पहचान की है जिसकी वजह से विशाल स्तर पर जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो गयी थीं. यानी वो महाविलुप्ति ( बड़ी संख्या में प्रजातियों के विलुप्त होने) का कारण बनी थीं.
डॉक्टर डेनियल पिंचेरा डोनोसो ने कहा, "हम जानते हैं कि इससे पहले जो पांच महाविलुप्ति की घटनाएं घटी हैं वो ज्वालामुखियों के फटने, उल्कापिंडों के धरती से टकराने या अन्य प्राकृतिक कारणों से हुई हैं. मिसाल के तौर पर मेक्सिको में उल्कापिंड के टकराने से डायनासोर ख़त्म हो गए थे."
वो घटना लगभग 6.5 करोड़ साल पहले घटी थी. इसी प्रकार की घटनाओं से 20.5 करोड़ साल पहले पृथ्वी की 90 प्रतिशत प्रजातियां समाप्त हो गयीं.
महाविलुप्ति की इन पांच घटनाओं के कारणों का पता नहीं चल पाया है. मगर अब छठा महाविलुप्ति का दौर हमारे नज़दीक आ चुका है. डॉक्टर डेनियल पिंचेरा डोनोसो के अनुसार, मास एक्सटिंक्शन या महाविलुप्ति का अर्थ है जब धरती पर कम से कम 70 प्रतिशत प्रजातियां ख़त्म हो जाती हैं.
वो कहते हैं कि हम अभी उस दौर में पहुंचे तो नहीं है लेकिन जैवविविधता तेज़ी से घटती जा रही है और हम अब महाविलुप्ति के दौर की ओर बढ़ रहे हैं. वो यह भी कहते हैं कि महाविलुप्ति के बाद धरती पर जीवन ही बदल जाएगा. मगर किन प्रजातियों पर विलुप्ति का ख़तरा है?
डॉक्टर डेनियल पिंचेरा डोनोसो के अनुसार, कई बडे स्तनधारी प्रणियों पर विलुप्ति का ख़तरा मंडरा रहा है जिसमें व्हेल की कुछ प्रजातियां और अफ़्रीका के बड़े स्तनधारी प्राणी शामिल हैं. लेकिन सबसे बड़ा ख़तरा मेंढक की प्रजातियों को है. वो कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन, ज़मीन की कमी और बीमारियों की वजह से मेंढक जैसे उभयचर प्राणी अन्य प्राणियों की तुलना में कहीं अधिक तेज़ी से ख़त्म हो रहे हैं.
उनकी कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई अन्य विलुप्ति की कगार पर हैं. किसी प्रजाति के विलुप्त होने से एक चेन रिएक्शन शुरू होता है और उससे जुड़ी कई अन्य प्रजातियां भी विलुप्त होने लगती हैं. यह कार के इंजन की तरह है जिसमें कई कलपुर्जे होते हैं लेकिन उसमें से एक छोटे स्क्रू के गिर जाने से पूरा इंजन ही बंद पड़ सकता है.
विज्ञान संबंधी मामलों की पत्रकार और जीन एडिटिंग यानि जीन की पुनर्रचना पर किताबों की लेखिका टोरिल कोर्नफ़ेल्ट कहती हैं कि जीन एडिटिंग की मदद से विलुप्त हो चुकी प्रजातियों को दोबारा पैदा करने के लिए कम से कम दस प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है.
उन्होंने बताया कि कुछ प्रोजेक्ट हज़ारों साल पहले विलुप्त हो चुके मैमथ जैसे प्राणियों को दोबारा पैदा करने के लिए चल रहे हैं. कुछ प्रोजेक्ट ऐसे प्राणियों को पैदा करने के लिए चल रहे हैं जो कुछ साल पहले ही विलुप्त हुए हैं या जो आज विलुप्ति की कगार पर हैं.
उन्होंने कहा, "जिन प्राणियों को दोबारा पैदा करने की कोशिश हो रही हैं उनके प्रति लोगों को हमेशा ही आकर्षण रहा है. मिसाल के तौर पर मैमथ, डायर वुल्फ़ या अमेरिका के पैसेंजर पिजन और उत्तरी सफ़ेद गेंडा जो अब विलुप्त होने की कगार पर है. लेकिन अगर विज्ञान की मदद से एक लाख सफ़ेद गेंडों को पैदा कर के जंगल में छोड़ दिया जाए तो हफ़्ते भर के अंदर अवैध शिकारी उन्हें मार देंगे. दरअसल इसी वजह से यह प्राणी विलुप्त हुए हैं. इस समस्या का समाधान नहीं हुआ है."
विज्ञान और टेक्नोलॉजी में आए क्रांतिकारी बदलाव से असंभव को संभव बनाया जा रहा है. लेकिन यह काम आसान नहीं है.
टोरिल कोर्नफ़ेल्ट कहती हैं कि अगर बर्फ़ में जमा हुआ मैमथ मिल भी जाए तो उसका डीएनए बहुत क्षतिग्रस्त हो चुका होता है.
"उसकी पूनर्रचना करना एक प्रकार से किसी उपन्यास के हज़ारों टुकड़ों में कटे फटे पन्नों के टुकड़े जोड़ कर उसे पढ़ने की कोशिश जैसा ही है."
उन्होंने कहा कि 1980 के दशक में ऐसी तकनीक बन गयी जिसकी मदद से डीएनए की पुनर्रचना कर के उसका अध्ययन किया जा सके. मगर 1990 के दशक मे डॉली नाम की भेड़ का जन्म एक बड़ी उपलब्धि साबित हुआ जिसे क्लोन कर के बनाया गया था. यानी किसी जीवित प्राणी की हूबहू नकल बनायी गयी. मगर यह करने के लिए जीवित कोशिकाओं की ज़रूरत होती है.
2012 में जीन एडिटिंग का एक नया साधन इजाद हुआ जिसे 'क्रिसपर कैस 9' कहा जाता है. इस की मदद से कोलोसल बायोसाइंसेज़ ने डायर वुल्फ़ के पिल्ले पैदा किए हैं.
टोरिल कोर्नफ़ेल्ट कहती हैं कि इस साधन की वजह से जीन एडिटिंग बहुत सटीक हो गयी और उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन आया. वो कहती हैं कि संरक्षण ही नहीं बल्कि कृषि विज्ञान में भी 'क्रिस्पर कैस 9' का इस्तेमाल किया जा रहा है.
इसी के चलते विलुप्त हो गई प्रजातियों को दोबारा ज़िंदा करने का सपना भी सच हो सकता है. मगर विलुप्त हो चुके प्राणियों को दोबारा पैदा करने के प्रयास कर रहे लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं?
टोरिल कोर्नफ़ेल्ट ने कहा, "मेरे ख़्याल से इसका मुख्य कारण उनकी वैज्ञानिक जिज्ञासा है. चीज़ों के साथ प्रयोग कर के दुनिया को बेहतर तरीके से समझने की जिज्ञासा की वजह से दुनिया में कई अच्छी चीज़ें भी इजाद हुई हैं जिससे हमें फ़ायदा हुआ है. मगर इन प्रयोगों के साथ नैतिकता के कई सवाल भी जुड़े हुए हैं."
दुविधाएं क्या हैं?अमेरिका के ओरेगोन राज्य के लुईस ऐंड क्लार्क कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर डॉक्टर जे ओडेनबो कहते हैं कि जीन एडिटिंग एक महत्वपूर्ण तकनीक ज़रूर है मगर इसके इस्तेमाल से डीएक्सटिंक्शन करने यानि विलुप्त हो चुकी प्रजातियों को दोबारा पैदा कर के क्या हम ईश्वर बनने की कोशिश तो नहीं कर रहे है?
वो कहते हैं, "एक फ़िलोसफ़र (दर्शनशास्त्री) होने के नाते हमें परखना पड़ता है कि इसके फ़ायदे, नुकसान से अधिक हैं या नहीं. साथ ही इसके पक्ष में और खिलाफ़ दी जा रही दलीलों का आकलन करना पड़ता है. विलुप्त हो चुकी प्रजातियों का वापिस लाने से जुड़े नैतिकता के मुद्दे भी हैं. इसके साइड इफ़ेक्ट्स भी हैं."
इस मामले में एक चिंता यह भी व्यक्त की जा रही है कि इससे लुप्तप्राय प्राणियों के संरक्षण के प्रयासों के लिए जनसमर्थन घट सकता है.
डॉक्टर जे ओडेनबो ने कहा, "एक चिंता यह भी है कि लोगों को लगने लगेगा कि अगर कोई प्रजाति लुप्त हो भी जाए तो उसे वापस पैदा किया जा सकता है. पहले कहा जाता था कि विलुप्त होना स्थायी होती है लेकिन वो धारणा बदल सकती है. लोगों को लगने लगेगा कि संरक्षण के प्रयासों पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है."
एक सैद्धांतिक प्रश्न यह भी है कि यह कैसे तय किया जाए कि किस प्रजाति को वापस पैदा किया जाए?
डॉक्टर जे ओडेनबो कहते हैं कि मैमथ जैसे प्राणी को दोबारा पैदा करने के पीछे एक अच्छी दलील यह है कि वो पेड़ों को गिरा कर बर्फ़ को रौंदते थे जिससे बर्फ़ का पिघलना कम हो सकता है और पर्यावरण को फ़ायदा हो सकता है.
लेकिन डीएक्सटिंक्शन से जुड़ा अगला सवाल यह है कि जिन प्राणियों की प्रजातियों को दोबारा पैदा किया जा रहा है वो हूबहू मूल प्राणी की तरह नहीं बल्कि उनसे मिलती जुलती प्रजाति है.
डॉक्टर जे ओडेनबो मानते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो इसका मूल उद्देश्य हासिल नहीं होगा. साथ ही ऐसे प्राणियों का जीवन एकाकी हो सकता है.
डॉक्टर जे ओडेनबो ने कहा कि लोगों को यह जिज्ञासा होगी कि जेनेटिक एडिटिंग से पैदा किए गए यह प्राणी मूल प्राणियों की तरह हैं या नहीं. उन्हें संरक्षित पिंजरों में रखा जाएगा. अगर वो प्रजनन नहीं कर पाएंगे तो वो दोबारा विलुप्त हो जाएंगे.
"इससे लगता है कि इस प्रोजेक्ट को केवल जिज्ञासावश चलाया जा रहा है ना कि संरक्षण के लिए. यह काम निजी कंपनियां कर रही हैं और दूसरे वैज्ञानिक इसे नहीं देख पा रहे हैं."
इस साल अप्रैल में कोलोसल बायोसाइंसेज़ ने कहा कि उसने डायर वुल्फ़ को दोबारा पैदा करने के प्रयोग से जुडा शोधकार्य अकादमिक पत्रिका में समीक्षा के लिए भेजा है. मगर इसे प्रकाशित होने में कई महीने लगेंगे.
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य सवाल की ओर- क्या अब प्रजातियों का विकल्प होना अब अतीत की बात है? बिलकुल नहीं.
कोलोसल बायोसाइंसेज़ द्वारा पैदा किए गए डायरवु ल्फ़ के तीन पिल्ले सौ प्रतिशत डायरवल्फ़ नहीं हैं.
हालांकि यह डीएक्सटिंक्शन को विकसित करने की ओर बढ़ाया गया एक बड़ा कदम ज़रूर है.
संभवत: यह भी संरक्षण का एक नया माध्यम बन सकता है. लेकिन केवल एक विलुप्त प्राणी को दोबारा पैदा करने में बहुत मेहनत और धन की ज़रूरत होती है.
साथ ही इससे सही और ग़लत के कई नैतिक मुद्दे भी जुड़े हुए हैं.
तो बता दें कि भेड़िये की डायर वुल्फ़ प्रजाति अब भी विलुप्त है और कई प्राणियों की विलुप्ति का ख़तरा बरकरार है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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