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जम्मू-कश्मीरः अनुच्छेद 370 पर क्या नेशनल कॉन्फ़्रेंस की सरकार कुछ कर पाएगी?

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Getty Images उमर अब्दुल्लाह को नेशनल कॉन्फ़्रेंस के विधायक दल का नेता चुना गया है, वो जल्द ही सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला है.

90 सीटों वाली विधानसभा में नेशनल कॉन्फ्रेंस को 42 सीटें मिली हैं. वहीं कांग्रेस के खाते में छह सीटें आई हैं.

अगस्त 2019 में केंद्र की मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटा दिया था. इसी साल जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश भी बना दिया गया था.

उसके बाद पहली बार यहाँ विधानसभा चुनाव हुए हैं और अब यहाँ सरकार बनने जा रही है. सरकार बनाने का ये मौक़ा नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन को मिला है.

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घोषणापत्र में और क्या लिखा था? image Getty Images

नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने अपने घोषणापत्र में ‘अनुच्छेद 370 और 35-ए' की बहाली के साथ-साथ राज्य का दर्जा 5 अगस्त 2019 से पहले की स्थिति में लाने का वादा किया था.

पार्टी ने अपने घोषणापत्र में लिखा था कि जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर सरकार के कामकाज़ के नियम-2019 को फिर से तैयार करने की कोशिश करेगी.

चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्लाह ने कहा, "हम जानते हैं कि केंद्र सरकार से अनुच्छेद 370 वापस नहीं मिलने वाला है, जिसने हमसे ये वापस ले लिया था. आने वाली सरकार से मेरी सलाह ये होगी कि वो केंद्र और लेफ़्टिनेंट गवर्नर से अच्छे कामकाज़ी रिश्ते रखने की कोशिश करें."

नेशनल कॉन्फ़्रेंस की सहयोगी कांग्रेस पार्टी चुनाव प्रचार के दौरान अनुच्छेद 370 पर टिप्पणी करने से बचती रही, लेकिन पार्टी ने जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल करने पर ज़रूर ज़ोर दिया.

वैसे कांग्रेस ने पहले ये कहा था कि अनुच्छेद 370 में संविधान के मुताबिक़ संशोधन होना चाहिए था. यानी बीजेपी ने जिस तरह अनुच्छेद 370 को हटाया था, सिर्फ़ उसके तरीक़े से ही कांग्रेस पार्टी ने दूरी बनाई.

चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेशनल कॉन्फ़्रेंस-कांग्रेस गठबंधन और महबूबा मुफ़्ती की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया था कि वे अनुच्छेद 370 और अन्य प्रावधानों की बहाली की साज़िश कर रहे हैं.

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नेशनल कॉन्फ्रेंस का मौजूदा रुख़ क्या बताता है और गठबंधन के लिए इसके क्या मायने हैं?

बीबीसी ने स्थिति को समझने के लिए कई जानकारों, वकीलों और संविधान विशेषज्ञों से बातचीत की है, ताकि ये भी पता लगाया जा सके कि नई विधानसभा क्या कर सकती है और क्या नहीं.

बिज़नेस स्टैंडर्ड की कंसल्टिंग एडिटर और राजनीतिक विश्लेषक अदिति फडनीस कहती हैं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के बीच किसी टकराव की संभावना है. मेरा मानना है कि हर कोई यह समझता है कि इस मुद्दे पर फ़ैसला हो चुका है."

उन्होंने कहा, "नेशनल कॉन्फ्रेंस का घोषणापत्र चुनाव के पहले की उनकी विचारधारा को प्रदर्शित करता है. अब ज़्यादा ज़ोर पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किए जाने के मुद्दे पर होगा, जिसे लेकर गठबंधन के दोनों दल साथ हैं. केंद्र सरकार ने न सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट के सामने बल्कि चुनावी रैलियों में भी दोहराया है कि वो इसे बहाल करेगी. अब सारी निगाहें उन्हीं पर है, क्योंकि उन्हें ही ये करना है.”

श्रीनगर स्थित राजनीतिक विश्लेषक नादिर अली जम्मू एंड कश्मीर सेंटर फ़ॉर पीस एंड जस्टिस के प्रमुख हैं. वो कहते हैं कि उमर अब्दुल्लाह के ताज़ा बयान का मतलब हृदय परिवर्तन नहीं है.

उन्होंने कहा, "अनुच्छेद 370 को लेकर भावनाएं अब भी हैं. मैं कह सकता हूँ कि कश्मीरियों के लिए ये कभी नहीं बदलने वाली है. लेकिन लोग ये समझते हैं कि फ़िलहाल उन्हें ये सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि सबसे पहले पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल हो. अगर तुरंत ही अनुच्छेद 370 की बहाली की मांग की जाती है, तो पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मुद्दा और आगे बढ़ सकता है."

वो कहते हैं, "इसलिए देखा जाए तो उस हद तक उमर अब्दुल्लाह के ताज़ा बयान को पलटना नहीं कहा जा सकता. मुझे नहीं लगता कि नेशनल कॉन्फ़्रेंस-कांग्रेस गठबंधन को अधिक समस्या होगी, क्योंकि पूर्ण राज्य के मुद्दे पर दोनों एकमत हैं. इसके अलावा ये जनमत जितना कांग्रेस के लिए है, उतना ही नेशनल कॉन्फ़्रेंस के लिए भी है.''

''जम्मू-कश्मीर की नई सरकार केंद्र के साथ बेहतर संबंध रखने की कोशिश करेगी. लेकिन इसके साथ ही उसे विपक्ष की आवाज़ की ज़रूरत पड़ेगी. जब उसे वो नहीं मिलेगा, जो वो चाहती है, तो उसे संसद में कांग्रेस की बड़ी मौजूदगी और इंडिया गठबंधन की उपस्थिति मदद करेगी."

image Getty Images पीएम मोदी ने कहा है कि अनुच्छेद 370 अब इतिहास बन चुका है केंद्र शासित विधानसभा के पास क्या शक्तियां हैं?

क़ानूनी सवाल पर जानकार केंद्र शासित विधानसभा की सीमित शक्तियों को लेकर अपनी राय में एकमत दिखते हैं

लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल पीडीटी आचार्य कहते हैं, "मेरे हिसाब से केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की विधानसभा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट 2019, अनुच्छेद 370 और 35 ए को ख़त्म करने के क़ानूनी मामलों में बदलाव जैसे मामलों में ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती. ये वो विषय हैं, जिन पर केवल संसद ही क़ानून बना सकती है."

सीनियर एडवोकेट शादन फ़रासत भी इस पर सहमति जताते हैं.

वे कहते हैं, "हमें ये बात समझने की ज़रूरत है कि चुनाव परिणाम राजनीतिक पार्टियों को केंद्र शासित प्रदेश की क़ानूनी स्थिति में बदलाव करने की शक्तियां नहीं देते हैं. पाँच अगस्त 2019 को जो बदलाव किए गए थे, वो संसद ने क़ानून बनाकर किए थे. इसमें कोई भी संशोधन या इसकी बहाली संसद से ही हो सकती है."

कई विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा की तुलना किसी राज्य की विधानसभा से नहीं की जा सकती है.

उपराज्यपाल की भूमिका image Getty Images वित्तीय मामलों में उपराज्यपाल की सिफ़ारिश के बिना कोई विधेयक पेश नहीं हो सकता

बीबीसी से बातचीत में केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के सीनियर एडवोकेट ज़फ़र शाह ने उप-राज्यपाल की अनुमति की बात उठाई.

उन्होंने कहा, "संख्या के आधार पर जम्मू-कश्मीर में जो पार्टियाँ सरकार बनाएँगी, वो अब जो चाहती हैं, वो प्रस्ताव पास करा सकती हैं लेकिन सरकार के कामकाज़ की सूची वाले आदेश में जो मामले शामिल किए हैं, उनमें उपराज्यपाल की स्वीकृति ज़रूरी होगी."

लेकिन विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस विधानसभा में जनप्रतिनिधियों की भावनाओं के मुताबिक़ प्रस्ताव पास करा सकती है. नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने इसका वादा भी किया था.

ज़फ़र शाह कहते हैं, "केंद्र शासित विधानसभा प्रस्ताव पास कर सकती है और इसका अपना महत्व है. पाँच अगस्त 2019 को जब यह राज्य राष्ट्रपति शासन के अधीन था, उस समय इस मामले में लोगों की इच्छा शामिल नहीं थी. लेकिन इस चुनाव में लोगों की इच्छाएँ शामिल हैं. इसलिए कोई भी प्रस्ताव अगस्त 2019 की कार्रवाई को लेकर लोगों की भावनाओं को व्यक्त करने की दिशा में पहला उदाहरण होगा. भले ही इस प्रस्ताव का नतीजा जो भी हो. यही इसकी अहमियत है."

विशेषज्ञ ज़ोर देते हुए कहते हैं कि वैसे तो ऐसे प्रस्ताव में लोगों की अभिव्यक्ति के रूप में महत्वपूर्ण राजनीतिक मूल्य शामिल होते हैं, लेकिन ये प्रस्ताव क़ानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होते.

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट 2019 पर नज़र डालें, तो ये बताता है कि विधानसभा कैसे क़ानून बनाएगी.

उदाहरण के तौर पर इस एक्ट का सेक्शन 32(1) कहता है कि विधानसभा केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर के किसी भी हिस्से या पूरे प्रदेश के लिए क़ानून बना तो सकती है, लेकिन ऐसा वो उन्हीं मामलों में कर सकती है, जो राज्य सूची में शामिल हैं.

इनके अपवाद हैं एंट्री 1 और 2. इन्हें 'पब्लिक ऑर्डर' और 'पुलिस' के रूप में दर्ज किया गया है. साथ ही विधानसभा संविधान की सातवीं अनुसूची में शामिल समवर्ती सूची के मामलों में क़ानून बना सकती है. लेकिन ये मामले केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित होने चाहिए.

इसी क़ानून के सेक्शन 36 के मुताबिक़ वित्तीय मामलों से जुड़े कोई भी विधेयक उप राज्यपाल की सिफ़ारिश से ही विधानसभा में पेश किए जा सकते हैं.

नई सरकार और केंद्र का समीकरण image Getty Images केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण जम्मू-कश्मीर में केंद्र की मोदी सरकार की अहम भूमिका होगी

दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की पैरवी कर चुके सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट शादान फरासत के मुताबिक़ स्थितियां बताती हैं कि केंद्र शासित सरकार पुलिस और क़ानून व्यवस्था को लेकर कोई विधेयक नहीं पेश कर सकती. ये उसके कार्यक्षेत्र से बाहर है.

उन्होंने कहा, "सैद्धांतिक रूप से जो अन्य मामले उनके कार्यक्षेत्र में शामिल हैं, उनमें भी कई शर्तें हैं. हालाँकि मेरा मानना है कि नई सरकार के कामकाज़ को लेकर जो चुनौतियाँ हैं, वो सरकार का स्वरूप नहीं है, जो उन्हें दिया गया है. दरअसल चुनौती ये है कि क्या उन्हें सरकार के स्वरूप के अंतर्गत काम करने की अनुमति दी जाएगी या नहीं. दिल्ली के उदाहरण को देखते हुए मुझे कहना पड़ेगा कि ये ज़्यादा भरोसा नहीं देता."

लेकिन ऐसी राय सबकी नहीं है.

ज़फ़र शाह के अनुसार, नई स्थिति को देखते हुए बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि केंद्र और केंद्र शासित प्रदेश की सरकार अपने फ़ैसलों में कैसे समन्वय स्थापित करते हैं.

वे कहते हैं, "केंद्र शासित प्रदेश में सरकार का गठन एक नई स्थिति है और बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि केंद्र सरकार उसे कितनी शक्तियाँ देना चाहती है. उदाहरण के तौर पर अगर केंद्र सरकार केंद्र शासित प्रदेश की किसी बात पर सहमत होती है, तो वो बदलाव को लेकर अधिसूचना जारी कर सकती है और विधानसभा को शक्ति दे सकती है. ऐसा होता है और ऐसा किन मुद्दों पर होता है, ये तभी कहा जा सकता है जब ऐसी परिस्थितियाँ बनती हैं."

वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के अनुच्छेद 370 को हटाने के फ़ैसले को बरकरार रखा है, लेकिन सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन के मुताबिक़ केंद्र के रास्ते में एक चुनौती आ सकती है, जो जम्मू-कश्मीर की स्थिति को मौलिक रूप से बदल सकती है.

पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने का ज़िक्र करते हुए शंकरनारायणन ने सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र के रुख़ को स्पष्ट किया था कि जम्मू-कश्मीर के लिए केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा 'अस्थायी' है.

उन्होंने कहा था, "इसे याद रखने की ज़रूरत है कि जब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ अनुच्छेद 370 को हटाए जाने और राज्य के पुनर्गठन को चुनौती देने से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही थी, उस समय सॉलिसिटर जनरल ने ये माना था कि सरकार की मंशा पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने की है."

उन्होंने बताया कि इसी आश्वासन पर खंडपीठ ने इस मामले में कोई निर्देश जारी नहीं किया था. हालाँकि कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट में एक आवेदन आया कि वो केंद्र सरकार को दिशा-निर्देश दे कि वो एक समय सीमा के अंदर अपना वादा पूरा करे.

शंकरनारायणन कहते हैं कि अगर ये फ़ैसला किया जाता है, तो कई अन्य मुद्दों पर भी प्रभाव पड़ेगा. इससे जम्मू-कश्मीर का स्वरूप बदल जाएगा और विधायी क्षमताएं भी बदल जाएंगी.

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